राजस्थानी भाषा और बोलियां
राजस्थानी भाषा की उत्पति
राजस्थानी भाषा की उत्पति प्राकृत की गुजरी अपभ्रंश से हुई है।
राजस्थान भाषा का स्वर्ण काल 1650 से 1850 तक था।
जॉर्ज अब्राहिम गिर्यसन के अनुसार राजस्थानी भाषा की उत्पति शोरसेनी प्राकृत के नागरी अपभ्रंश से हुई।
यहां की भाषा के लिए ' राजस्थानी ' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1912 ई में अपने ग्रंथ " linguistic servey of india " में किया।
राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण
राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण दो विद्वानों ने प्रस्तुत किया।
१. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन
२. एल. टेसीटोरी
राजस्थान भाषा की प्रमुख बोलियां
कर्नल जेम्स टॉड
कर्नल जेम्स टॉड की बुक " दी एनल्स एंड एंटिकविटिज ऑफ़ राजस्थान (1829) में राजस्थान भाषा का उल्लेख है। इस पुस्तक में राजस्थान का नाम रायथान, रजवाड़ा उल्लेख है।
जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन
जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा 1912 में लिखित पुस्तक the linguistic servey of india में राजस्थान / राजस्थानी शब्द का उल्लेख है।
उद्दोतन सुरी - कुवलयमाला 1778 ई में भारत पर हुणों के आक्रमण का प्रमाण है , इस ग्रंथ में 18 देशी भाषाओं का उल्लेख है जिसमे मद भाषा का उल्लेख भी है जो वर्तमान में मारवाड़ी भाषा है।
अबुल फजल - आइने अकबरी में भी राजस्थानी भाषा का उल्लेख है।
कवि कुशललाभ - पिंगल शिरोमणि में भी मारवाड़ी भाषा का वर्णन है।
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने राजस्थानी भाषा को 5 भागों में विभक्त किया।
1. पश्चिम राजस्थानी
2. दक्षिण राजस्थानी
3. उत्तरी पूर्वी राजस्थानी
4. मध्य पूर्वी राजस्थानी
5. दक्षिण पूर्वी राजस्थानी
एल. टेसीटोरी ने राजस्थानी भाषा को दो भागों में विभक्त किया।
1. पूर्वी राजस्थानी भाषा
2. पश्चिमी राजस्थानी भाषा
राजस्थानी भाषा की प्रमुख बोलियां
मारवाड़ी बोली
उपबोली - मेवाड़, बीकानेरी, बागड़ी, खेराडी, जालोरी, बाड़मेरी , गोड़वाडी, नागौरी, बांगडी,
ढूंढाड़ी बोली
उपबोली - हाड़ौती, नागरचोल , राजावटी, तोरावाटी, चौरासी, किशनगढ़, अजमेरी, कावेडी
मालवी बोली
उपबोली - रांगड़ी, निमाड़ी
मेवाती - इनकी कोई उपबोली नहीं है।
मारवाड़ी बोली
यह पश्चिमी राजस्थान की प्रथम व प्रमुख बोली है, यह कर्ण प्रिय बोली है।
इस बोली का प्रमुख क्षेत्र जोधपुर व जोधपुर के आसपास अन्य क्षेत्र - नागौर, बीकानेर, जालोर, जैसलमेर, पाली व बाड़मेर है।
प्राचीन नाम - मरू भाषा, इसका उल्लेख कुवलयमाला (उद्योतन सुरी) ग्रंथ में मिलता है।
उत्पति - शोर सेन प्राकृत के गुर्जरी अप्रभृंश से 8 वी सदी में हुई थी।
साहित्यिक रूप - डिंगल
अधिकांश जैन साहित्य व मीरा बाई के पद इसी भाषा में है।
उपबोलिया
खेराड़ी - यह मुख्यत तीन बोलियो का मिश्रण है।
हाड़ौती , ढूंढाड़ी व मेवाड़ी
इस बोली का प्रमुख केंद्र शाहपुरा ( भीलवाड़ा ) व बूंदी है।
यह मीणा जनजाति की प्रमुख प्रिय बोली है।
बागड़ी - यह डूंगरपुर ओर बांसवाड़ा क्षेत्र बोली जाती है।
इसकी उपबोली भिली है । यह भील जनजाति की प्रिय बोली है।
मेवाड़ी बोली
यह राजस्थान की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली बोली है। इसका शुद्ध रूप मेवाड़ी गांवों में देखने को मिलता है।
इसके प्रमुख क्षेत्र भीलवाड़ा, चितौड़गढ़, उदयपुर ओर राजसमंद है।
कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में इस बोली का उल्लेख है तथा कुभा साहित्य इसी बोली में लिखा गया है।
शेखावाटी बोली
यह बोली मुख्यत राजस्थान के सीकर , चुरू ओर झुंझुनू में प्रमुख से बोली जाती है।
थली
यह बोली मुख्यत बीकानेर, चूरू ओर श्री गंगानगर में बोली जाती है।
देवड़ा वाटी
यह बोली मुख्यत सिरोही (आबू) में बोली जाती है
गोड़वाडी बोली
यह बोली मुख्यत पाली जिले में बोली जाती है।
ढूंढाड़ी बोली / जयपुरी/ झाड़शाही बोली
यह बोली मुख्यत जयपुर, दोसा, टोंक, अजमेर, सवाई माधोपुर आदि क्षेत्रों में बोली जाती है।
इस बोली के सबसे प्राचीनतम प्रमाण 18 वी सदी के 8-10 गूर्जरी नामक ग्रंथ में मिलता है।
साहित्यिक रूप
यह बोली मुख्यत " पिंगल " में पाई जाती है।
संत दादूदयाल ने अपने उपदेश इसी बोली में दिए थे।
उपबोलिया
तोरावाटी - कांतली नदी के अपवाह क्षेत्र को तोरावाटी कहते है। यह बोली जयपुर के उत्तरी भाग, झुंझुनू के दक्षिण भाग, सीकर के दक्षिण पूर्वी भाग में बोली जाती है।
राजावाटी - यह बोली मुख्यत जयपुर के पूर्वी भाग, दौसा के पश्चिमी भाग में बोली जाती है।
नागरचोल - नागरचोल बोली सवाई माधोपुर के पश्चिमी भाग, टोंक के दक्षिण पूर्वी भाग में बोली जाती है।
हाड़ौती - यह कोटा , बूंदी, बारा ओर झालावाड़ में बोली जाती है, सुर्यमल्ल मिश्रण का ग्रंथ वंश भास्कर इसी बोली में लिखा गया है।
हाड़ौती शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भाषा के अर्थ में 1875 में मिस्टर केलॉग ने अपनी पुस्तक " हिन्दी ग्रामर" में किया।
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